
अति प्राचीन वैदिक युग में सबसे पहले आकाश नक्षत्र तथा चंद्र के सहयोग से पुण्य दिवस की कल्पना की गई नक्षत्रों की शुभाशुभ ता के संबंध में असाधारण संशोधन किया गया और तदनुसार उन दिनों यज्ञ आदि वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठानों की व्यापक व्यवस्था की गई थी। आगे चलकर इस धरातल पर बसने वाले ज्योतिष – शास्त्र के प्रवर्तक महर्षि यों तथा उनके अनुयाई आचार्य ने नक्षत्रों और ग्रहों के गुण – धर्म एवं पारस्परिक संबंधों के विषय में और भी गहरी छानबीन की जिसके परिणामस्वरूप ‘फलित शास्त्र’ की उत्पत्ति हुई । तात्पर्य यह है कि, ज्योतिष – शास्त्र के इस फलित भाग में नक्षत्र और ग्रहों के पारस्परिक संबंधों को सर्वाधिक महत्व का स्थान प्राप्त हुआ । प्रस्तुत ‘ सर्वतोभद्र चक्र ’ में नक्षत्रों और ग्रहों के इस चोली – दामन – जैसे अटूट संबंध को इतने सुंदर ढंग से व्यवस्थित किया गया है कि इस चक्र के द्वारा फल कहने वाले ज्योतिषी अथवा निर्णय करता का कथन सर्वांश में सही होता है – उसकी वाणी कभी मिथ्या नहीं होती ।
इस चक्र के 3 नाम हैं १. त्रैलोक्यदीपक, २. सर्वतोभद्र और ३. एकाशीतिपद चक्र । जिनमें से सर्वतोभद्र नाम लोक प्रसिद्ध है । इस चक्र का निर्माण ऐसी खूबी के साथ किया गया है कि जिसके द्वारा त्रैलोक्य के सभी जड़ – चेतन पदार्थों का भविष्य अर्थात मनुष्य, पशु, पक्षी, देश, नगर, ग्राम , सुभिक्ष ,दुर्भिक्ष, वृष्टि अतिवृष्टि, अनावृष्टि, राष्ट्र – विप्लव तथा सभी क्रय – विक्रय के पदार्थों की तेजी – मंदी का उपयुक्त समय आदि का सही-सही शुभाशुभ फल जाना और कहा जा सकता है।
इस चक्र का उपयोग पदार्थ मात्र के नाम के पहले अक्षर से निर्माण किए हुए वरुणादि पंचक ( १.वर्ण, २. नक्षत्र, ३. राशि ४. स्वर,५. तिथि) पर ग्रहों के वाम – सम्मुख – दक्षिण वेध के द्वारा होता है।‘ वेध ‘ का अर्थ है किसी वस्तु के वरुणादि ५ अंगों में से किसी अंग को गहरी नजर से देखना । किसी नक्षत्र पर बैठा हुआ ग्रह अपनी गति के अनुसार इस चक्र में कभी दाहिनी ओर, कभी बाएं ओर तो कभी सामने की ओर वेध किया करता है । यह वेध की मूल परिभाषा है । ग्रह नो हैं । जिनमें से मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि; इन पांच ग्रहों में से जो ग्रह वक्री होता है वह इस चक्र में जिस नक्षत्र में बैठा हुआ होता है, वहां से दाहिनी ओर के वर्ण आदि को वेध करता है ।
जब इनमें से कोई ग्रह शिघ्री (अतिचारी) होता है तब अपने स्थान से बाई और के वर्ण आदि को वेध किया करता है और जब इनमें से कोई ग्रह समगति (मध्य चारी )होता है तब वह इस चक्र में सामने की ओर से वर्ण आदि को वेध करता है ।
इन पांचों ग्रहों की समय-समय पर गति बदलती रहती है, जिससे वेध भी बदलता रहता है राहु – केतु सदा वक्री रहते हैं और सूर्य – चंद्र सर्वदा मार्गी गति के रहते हैं । इन चार ग्रहों की गति में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इस कारण इन चार ग्रहों का वेध भी सर्वदा तीनों तरफ (वाम – सम्मुख – दक्षिण) हुआ करता है।